Wednesday, September 30, 2009

मुझे बरमूडा याद आ गया

हम दुआ कर रहे हैं कि बुधवार को होने वाले मैच में पाकिस्तान जीत जाये. क्यों कि इसी जीत से भारत के लिये आगे की कोई सम्भावना बचती है ,वरना तो जै राम जी की.

क्या बिडम्बना है. कल तक हम कसमें खा रहे थे, हवन ,यज्ञ, तपस्या कुछ भी करने को तैयार थे कि 26 सितम्बर को पाकिस्तान हार जाये.आज हम सभी कुछ पाकिस्तान के हक़ में देखना चाह रहे हैं कि वह कल आस्ट्रेलिया को हरा दे.

इस प्रसंग से मुझे पिछला वर्ल्ड कप याद आ गया जब हम शुरुवात में ही बंगलादेश से हार गये थे. बाद में एक ही सूरत बची थी और हम दुआ कर रहे थे कि काश! बरमूडा-बंगलादेश के मैच में बरमूडा जीत जाये ( वही बरमूडा ,जिसे हराकर भारत ने 413 रन का रिकार्ड बनाया था).

मुझे याद है कि उस दिन आल इंडिया रेडिओ में कविता कार्यक्रम ( हंसते -हंसाते) की रिकौर्डिंग थी, और मैने कविता पढ़ी थे - " गर्दिश में है देश हमारा बरमूडा, कर दे बेडा पार हमारा बरमूडा" .


कल का बरमूडा ,आज का पाकिस्तान .

Monday, September 28, 2009

ब्लोगवाणी का मामला इमोशनलात्मक हो गया है ,आइये इन्हे मनायें

आज दो दिनों के बाद जब देखना चाहा कि ब्लोगजगत में नया क्या है, तो ब्लोगवाणी का पेज़ नहीं खुला . किंतु यह क्या ?ब्लोगवाणी के पृष्ठ पर एक घोषणा पढ़ी तो माथा चकराया. तुरंत चिट्ठाजगत लोग ओन किया. अविनाश वाचस्पति की रपट पर ध्यान गया. बात पूरी तो नहीं पर कुछ कुछ समझ में आयी.

मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार ,प्रसार व प्रगति में ब्लोगवाणी की भूमिका अद्वितीय है. मैने दो सिर्फ दो वर्ष पहले ही (हिन्दी) ब्लोगिंग शुरू की थी और इन दो वर्षों में मैने हिन्दी चिट्ठाकारी ( ब्लोगिंग) का निरंतर विकास देखा है. सिर्फ इसमें ब्लोगरों की संख्या ही कई गुनी नहीं बल्कि तकनीक में भी ज़ोररदार सुधार हुआ है. अक्षरग्राम, नारद ,चिट्ठाजगत व ब्लोगवाणी ,इन चारों ने जो काम किया उसे कम करके नहीं आंका जा सकता. आज जो सर्वाधिक प्रयोग होने वाले दो एग्ग्रीगेटर हैं उनमें ब्लोगवाणी व चिट्ठाजगत ही हैं. मेरे पास आंकडे नहीं है लेकिन मेरा अन्दाज़ है कि ब्लोगवाणी अधिक लोकप्रिय है.दो वर्ष पहले मैने अपने ब्लोग पर सर्वेक्षण किया था ,तब 49% लोगों ने बताया था कि वह सिर्फ ब्लोगवाणी का ही प्रयोग करते है( देखें पूरी रपट )

मुझे याद है कि संतनगर ,ईस्ट ओफ कैलाश ,नई दिल्ली में लगभग दो वर्ष पहले एक ब्लोग्गर मीट हुई थी ( जो मेरे विचार से अब तक हुई सबसे महत्वपूर्ण हिन्दी ब्लोगर मीट थी) . वह ब्लोगवाणी के कार्यालय में हुई थी ( हालां कि इसका आयोजन तो कनाट प्लेस में था परंतु भीड़ बढने से स्थान परिवर्तित हुआ था). उस मीटिंग में भी ( दूसरे सन्दर्भ में)एग्ग्रीगेटर की भूमिका पर एक सार्थक बहस हुई थी. उस बैठक में -अफलातून, मसिजीवी, संजय बेंगाणी, नीलिमा, मैथिली शरण,घुघूति बासूति, पंगेबाज ( अरुन अरोरा),आलोक पुराणिक,शैलेश भारतवासी,सुनीता चोटिया, सृजनशिल्पी,काकेश,मोहिन्दर कुमार, नीरज, सुरेश यादव, जगदीश भाटिया ,(कई नाम भूल रहा हूं) जैसे प्रमुख चिट्ठाकार मौज़ूद थे. ( देखें मेरी एक रपट ) हालां कि उस समय भी हिन्दी चिट्ठाकारी ( ब्लोगिंग) को लेकर ऐसे ही प्रश्न थे जो नारद /अक्षरग्राम /ब्लोगवाणी को लेकर उठे थे. उस समय बाज़ारवाद जैसे मुहावरे भी उछले थे. कमोबेश आज भी मुद्दे वैसे ही हैं . तर्क़ भी वही हैं.

ब्लोगवाणी या अन्य कोई भी सेवा या व्यापार ( जाकी रही भावना जैसी...) के इरादे से आता है तो उसका स्वागत होना चाहिये. यदि किसी के योगदन से हिन्दी को, या हिन्दी चिट्ठाकारी ( ब्लोगिंग) को लाभ पहुंचता है तो हमें शुद्ध अंत:करण से उसकी सराहना करना चाहिये.

कमियां हों तो बताना भी चाहिये. किसी को बुरा भी लगना नहीं चाहिये. लोकतंत्र में हर कोई कुछ भी कहने को स्वतंत्र है.
बात दिल पे नहीं लेनी चाहिये.

'पसन्द' को लेकर उठे प्रश्न ज़ायज़ हैं . ब्लोगवाणी को बुरा नहीं मानना चाहिये था. बस अपना स्पष्टीकरण दे देते. काफी होता . प्रश्नकर्ता की शंका भी मिट जाती.

लगता है कि ब्लोगवाणी ने इसे 'इमोशनलात्मक'बना दिया है.
आइये मैथिली जी व सिरिल जी को हम सब मनायें और ब्लोगवाणी को दुबारा चालू करवाने का प्रयास करें

Sunday, September 20, 2009

क्या आप भी कांफ्रेंस के लिए ( मुफ्त में) कनाडा व अफ्रीका चलेंगे?

दिसम्बर के पहले सप्ताह में ओंटारिओ कनाडा व अफ्रिका में दो अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस होने वाली है. पहली अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस में मुद्दा है बेरोज़गारी जो 1 से 4 दिसम्बर तक बताई गयी है.दूसरी कांफ्रेंस केप-वर्डे द्वीप ( पश्चिम अफ्रीका) में 7 से 11 दिसम्बर तक होगी. मज़े की बात है कि कांफ्रेंस के आयोजक सारी ज़िम्मेदारी उठाने को तैयार हैं . आने जाने का खर्चा भी और कांफ्रेंस के दौरान खाना-पीना रहना सब उनके जिम्मे.
और तो और आयोजक तो तीन से लेकर दस लोगों को साथ लाने को भी कह रहे हैं.

नहीं यह अप्रैल फूल नहीं है. ऐसा एक आमंत्रण मुझे ई-मेल से प्राप्त हुआ है और सूचना है कि मेरा पता आयोजकों को देश के किसी युवा संघ्टन ने भेजा है.

पिछले छह महीने में इस प्रकार की अलग अलग विषयों /मुद्दों पर अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस हो रही हैं ऐसा मुझे इन छह महीनों में प्राप्त आमंत्रणों से पता चला है.

कहने की आवश्यकता नहीं है कि मैं अभी तक ऐसे सारे मुफ्त सैर सपाटा वाले आमंत्रणों को रद्दी की टोकरी के हवाले करता आ रहा हूं. पूरी दुनिया में शायद ही ऐसा कोई दरिया दिल संघटन होगा जो इस प्रकार से अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस आयोजित करके सभी जाने- अंजाने लोगों को ( मुझे भी )यार-दोस्तों के साथ इस तरह बुलायेगा.
ज़ाहिर है कि इसमें बड़ी चाल है .

कहीं आपको और आपके इष्ट मित्रों को तो इस तरह के प्रलोभन वाले आमंत्रण नहीं मिले हैं? मेरी तो राय कि इन पर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया जाये.
आखिर नट्वरलाल कहां नहीं हैं ?

Monday, September 14, 2009

बम्बई किसी के बाप की जागीर नहीं है

कुछ लोगों ने कसम खा रखी है कि वे नहीं सुधरेंगे. चर्चा में बने रहने के लिये राज ठाकरे जैसे (कथित) नेता ऊल-जलूल वक्तव्य देने से बाज़ नहीं आ रहे हैं.
चिट्ठानामाके अनुसार एक बार फिर राज ठाकरे ने ज़हर उगला है और उत्तर भारतीयों से कहा कि वे बम्बई की राजनीति में हस्तक्षेप न करें और अपने आप को सिर्फ पानी-पूरी बेचने तक सीमित रखें.

कोई इस शख्स को समझाये कि ये दादागीरी की ज़ुबान न ही बोले तो श्रेयस्कर होगा. जब भी वह अदालत के समक्ष उपस्थित होते हैं तो माफी की मुद्रा में दिखायी देते हैं. फिर जब भी मीडिया उन्हे भूलने लगता है तब फिर वह कुछ अटपटा बयान देकर मीडिया का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करते हैं.

जिन के विरुद्ध वह ज़हर उगल रहे हैं ,यदि वह भी ऐसी ही भाषा बोलने लगें तो क्या होगा? उत्तर भारतीयों के प्रति जिस प्रकार का दुर्व्यवहार बम्बई में हुआ है ,यदि उत्तर भारतीय भी बदला लेने पर उतर आयें तो क्या होगा ठाकरे जी? में ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह राज जैसे सिरफिरे व गुमराह व्यक्तियों को सद्बुद्धि प्रदान करे.

बस दो दुमदार दोहे इस विषय पर प्रस्तुत हैं:-

बिल्ली छोटे गांव की खुद को समझे शेर
सवा सेर आ जायेगा, हो जायेगी ढेर
कि सुन ले राज ठाकरे
मत अपनी जड़ें काट रे


बम्बई तो जागीर है भारत भर की आज
उल्टी गंगा मत बहा मूर्खों के सरताज
बडा पछताना होगा
बड़े घर जाना होगा

Sunday, September 13, 2009

आखिर इस ढोंग की ज़रूरत ही क्या थी ?

देश के अनेक भागों में सूखा पड़ रहा है. क़िसान आत्महत्या पर अभी भी मज़बूर हैं. ऐसे समय में सोनिया गान्धी द्वारा कांग्रेस सरकार के मंत्रियों को दिये गये सरकारी खर्च में कमी लाने के निर्देशों का वाकई कितना असर होगा ,इसका अन्दाज़ लगाना मुश्किल नहीं है.

जैसे ही वित्त मंत्री प्रणव बाबू ने फरमान ज़ारी किया वैसे ही एक समाचार पत्र मे दो मंत्रियों के 5 -स्टार होटल में रहने की खबर आ गई. अब सरकार की किरकिरी होना निश्चित थी अत: वित्त मंत्री को स्प्ष्टीकरण भी देना पड़ा. परंतु राजनेता ( यानी मंत्रीगण) अभी भी समझोते को तैयार नहीं दिखते . शरद पवार, फारुक अब्दुल्ला ने साधारण श्रेणी की हवाई यात्रा पर भी सवाल उठा दिया है. कुल मिलाकर यह एक गम्भीर मुहिम न होकर एक ढोंग सा बन गया लगता है.

आखिर इस ढोंग की ज़रूरत ही क्या थी ?

इस बहस के कई आयाम हैं परंतु मेरी राय में जो प्रमुख प्रश्न हैं वे निम्न हैं:
(1) क्या अमीर /सम्पन्न पृष्ठभूमि से राजनीति में आने वाले राजनेताओं को अपनी सम्पत्ति का भोंडा ( व अश्लील) प्रदर्शन करने की छूट होनी चाहिये ? दो मंत्रियों ने (लगभग)ताल ठोकते हुए कहा था कि वे अपने पांच सितारा होटल का खर्च स्वयं उठा रहे हैं ( हालांकि इस पर सहजता से विश्वास करना मुश्किल है )अत: किसी को आपत्ति करने का हक़ नहीं है और उन्हे ऐसा करने से नहीं रोका जाना चाहिये.

(2) क्या संप्रग सरकार अपने मंत्रियों को ज़बरद्स्ती सादगी का प्रदर्शन करने पर मज़बूर करके एक ढोंग नहीं कर रही ? सभी जानते हैं कि यदि मंत्रियों को सार्वजनिक रूप से सादगी पूर्ण व्यवहार हेतु मज़बूर किया भी गया ,तो भी सरकारी खर्च में कोई बड़ी कमी नहीं आने वाली.

(3) क्या वाकई पब्लिक सब जानती है ? जनता को इन फालतू के नारों या दिखावों से भरमाया नहीं जा सकता. जनता इस सारे झूठ के पर्दे के आर पार देख सकती है.
(4) जिस तरह गरीबी की रेखा निर्धारित है ,उसी तरह क्या कोई अमीरी की रेखा भी होनी चाहिये?
(5) अब जबकि कि आम राजनेता संपन्न तबके से भी आने लगे हैं ( भले ही वे - पिछले दरवाजे से राज्य सभा में पहुंचे या धनबल के बूते जनता के वोट खरीद कर) क्या लोक प्रतिनिधियों से सादगी के व्यवहार की अपेक्षा ही नहीं की जानी चाहिये और उन्हे पूरी छूट हो कि वे ( कथित रूप् से) 'अपनी निज़ी' कमाई को सार्वजनिक रूप् से जैसे चाहें वैसे उड़ायें?

ये सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं.
मेरी राय है कि यदि कोई व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में आता है तो उसे कुछ त्याग करने के लिये तैयार होना चाहिये. सार्वजनिक जीवन के कुछ मापदंड भी हों ( जिनमें निज़ी दौलत का भी भोंडा व अश्लील प्रदर्शन वर्जित हो) . ये मापदंड भले ही कानून का रूप न लें तो भी एक मर्यादित आचरण अवश्य निर्धारित होना चाहिये.

Saturday, September 5, 2009

कौवों के कोसने के गायें नहीं मरा करती उर्फ भाजपा को गाली देना एक शगल क्यों बनता जा रहा है?

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सबसे पहले एक शाकाहारी स्पष्टीकरण. फिलहाल मैं भाजपा का कोई प्रवक्ता नहीं हूं .अपने ब्लोग को दलगत राजनीति से दूर रखने की भरसक कोशिश की है. हालांकि कभी कभार छुट्पुट टिप्पणियां ज़रूर की होंगी. यह स्पष्टीकरण इसलिये आवश्यक है कि इस पोस्ट को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाये.

प्रतिक्रियावश इस पोस्ट को लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी फिलहाल इसका ज़िक्र मैं अभी न उचित समझता हूं और न आवश्यक .
जब प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह ने भाजपा में चल रही उठापटक पर चिंता जताई थी तो वह ( सम्भवत: ) एक आम भारतीय की पीड़ा को ही व्यक्त कर र्हे होंगे,ऐसा मेरा मानना है. हालांकि भाजपाई अध्यक्ष को वह नागवार गुजरा. मैं भले ही भाजपा का सदस्य नहीं हूं पर प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह की ही भांति मानता हूं कि लोकतंत्र को स्वस्थ बनाये रखने के लिये मुख्य विपक्षी दल का मज़बूत रहना भी ज़रूरी है.

भाजपा में जूतों में दाल बंट रही है .इसे सब ने ही देखा है. इसकी तुलना महाभारत से की जाये या गली-मुहल्ले के स्तर वाली घटिया गुटबाजी से, यह अपनी अपनी सोच है. किंतु जहां एक ओर प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह जैसी सोच है , वहीं दूसरी ओर इस जूतम पैज़ार पर चटकारे लेने वालों की भी कमी नहीं है.

भारत में केन्द्रीय स्तर की दलीय् राजनीति सिद्धांतत: अभी भी इतनी परिपक्व नहीं है, कि विचारधारा के आधार पर ध्रुवीकरण हो. पिछले 20- 22वर्षों से प्रदेशों में व केन्द्र में खिचडी सरकारों का ही प्रभुत्व रहा है. इससे न भाजपा अछूती रही न कांग्रेस और न ही कम्युनिस्ट. सबने बहती गंगा में हाथ धोये हैं.

कमोबेश सबही दलों में सिर फुटौव्वल के दौर चले हैं ,सभी दलों में टूट-फूट भी हुई है. सभी ने विचारधारा को ( और कहीं कहीं तो देश की अस्मिता को भी) ताक पर रख कर समझोते किये हैं. ज़िक्र न भी किया जाये तो सभी ऐसे उदाहरणों के वाक़िफ हैं. एक हाथ से दोस्ती और दूसरी से पीठ में छुरा भोंकने वाले एक नहीं कई कई उदाहरण सामने आये हैं. और कोई भी दल , हां हां कोई भी, इसका अपवाद नहीं है.

जैसा कि मैने पहले कहा, भाजपा को गाली देना एक शगल बनता जा रहा है, विशेषकर तथाकथित प्रबुद्ध, प्रगतिवादी, आदि आदि कहलाना पसन्द करने वालों में.

इन सभी से एक गुज़ारिश है. भैया जी, पहले तनिक अपने गिरेबान में भी झांको न . पर उपदेश कुशल बहुतेरे.
किंतु सच्चाई यह है कि कौवों के कोसने के गायें नहीं मरा करती.
भाजपा का सदस्य अथवा प्रवक्ता न होते हुए भी मैं आशावान हूं कि वह एक बार फिर पटरी पर आयेगी तथा भारतीय लोकतंत्र आने वाले वर्षों में और भी मज़बूत होगा.
आमीन.