Tuesday, January 22, 2008

गोविन्दा का नाम लो, झट कविता बन जाय ?

अशोक चक्रधर जी के ब्लोग पर अभी एक "कुंडली" गोविन्दा का थप्पड शीर्षक से पढी. यह वही कुंडली है जो, चक्रधर जी ने
हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दी" विषय पर आयोजित गोष्ठी ( इंडिया हेबिटेट सेंटर, 19 जनवरी ,2008 ) वहां चक्रधर जी ने सुनाई थी, यह कुन्डली.उनके मुताबिक कुंडली की परिभाषा है कि कुंडली जिस शब्द से शुरू होती है, उसी पर ख्त्म भी होती है . बस यही सोचकर मैने भी जवाब लिख मारा.

अब हो जाये जवाबी कुंडली ???


गोविन्दा का नाम लो, बस दिमाग हिल जाय्
थप्पड टीवी पर दिखे ,झट् कविता बन जाय
झट् कविता बन जाय, सुनाते फिरे चक्रधर
तीन दिनों में पहुंच जायेगी कविता घर घर
कहे कुंडली नया नवेला कवि अरविन्दा
थप्पड तो चख लिया, गुरु अब भज गोविंदा.

Sunday, January 13, 2008

दिल्ली ब्लौग्गर्स मीट: देखने हम भी गये थे पर तमाशा ना हुआ




खूब चर्चा थी कि गालिब के उडेंगे पुर्जे
देखने हम भी गये थे पर तमाशा न हुआ.
शनिवार को सुबह 10 बजे से दो बजे तक क्लास थी ,अत: चाहकर भी ब्लौग्गर्स मीट मे सुबह नही पहुंच पाया. अफ्सोस था कि कई चर्चे छूट जायेंगे,पर संतोष था कि कुछ तो पल्ले पडेगा,यदि तीन बजे तक भी पहुंच गये तो.
पहले तो गाडी हाईवे पर गलत लेन में घुसेड दी अत: तीन किमी. का चक्कर लगाना पडा. फिर ( इश्क़ की) घुमावदार गलियों में घूम घूम कर जब फार्म नम्बर 31 पहुंचा तो एन डी टी वी वाले कैमरामेन किसी का साक्षात्कार ले रहे थे.लगा कि मामला खत्म सा हुआ जाता है. परंतु नहीं .आगे चलकर दिखा कि कोई महाशय खडे खडे घूम घूम कर “प्रवचन” जैसा कुछ कर रहे है. , वहीं एक खाली कुर्सी देखकर में भी धंस लिया. भाषण जारी था, परंतु मेरी निगाहें किन्ही परिचित हिन्दी ब्लौगरों को खोज रहीं थी. अचानक किसी जुमले पर मैं भी हंसा और मेरे आगे बैठे सज्जन भी. मैने उनकी ओर देखा ,उनने मुझे . आंखे चार हुई. अरे! ये तो अपने मैथिली जी थे . नमस्कार हुआ. फिर उनके बगल मे बैठे सिरिल भी. थे कुछ क्षणों बाद प्रिय शैलेश भारतवासी भी दीख गये,तो लगा कि अपरिचितों के बीच नहीं हूं मैं.

इस बीच वह अंग्रेजी बोलने वाले ( जो बीच बीच में बता देते थे कि वह माइक्रोसोफ्ट के कर्मी हैं) ने अपनी बात समाप्त की. बात चीत का लहजा दोस्ताना था, परंतु महौल में कोई गर्मजोशी नहीं दिखी ( खुले आसमान के नीच बैठे थे सब और हवा में भी कडक की ठन्ड थी ) .बाद में जाना कि वह शख्स अभिशेक बख्शी जी थे). मैं तो हिन्दी ब्लोग जगत के प्रतिनिधि अमित भाई को ढूंढ रहा था, जो कहीं नजर न आये, मैं समझा ,सुबह के सत्र में आये होंगे). फिर चकल्लसी चक्रधर जी दिखे. माइक पर पहुंच कर उन्होने हिन्दी ब्लोग जगत के आंकडे बताये( जिनमें मैथिली जी ने टोक कर सुधार किया). फिर ( शायद चिट्ठाजगत से) हिन्दी ब्लोग के वर्गीकरण के आंकडे बताये. ळब्बा लुवाब यह कि हिन्दी में ग्रोथ कम है.
फिर उन्होने अपने ब्लोग के बारे में भ्रम दूर किया. उन्होने उस बालिका का जिक्र भी किया( वह भी मौजूद थीं) जो उनका ब्लोग लिखती है. इस सन्दर्भ में वे उस “खाली” पोस्ट का भी जिक्र कर गये जिस पर अनेक प्रतिक्रियायें आयीं.कुछ को उन्होने पढकर भी सुनाया) ( इसमें मेरी भी एक प्रतिक्रिया थी) और श्रेय लिया कि सम्भवत: वह अकेले ऐसे ब्लोगर है,जिन्हे कोरी पोस्ट पर भी टिप्पणी मिली.

फिर सारे के सारे ( लग्भग 30 लोग ही बचे थे ) bon-fire की तरफ शिफ्ट हो गये. ओपेन हाउस शुरू हुआ. किस तरह नेट्वर्किंग की जाये, कंटेंट शेयर ,ब्लोग्स की रेटिंग, नये ब्लोगरों को आगे लाने की बात, बार केम्प का आयोजन, ब्लोगरों मे गुट्बन्दी कैसे समाप्त की जाये( विशेष रूप से तमिल्नाडु में ऐसे चलन का जिक्र हुआ) आदि विषयों पर चर्चा हुई. एक ब्लोग से दूसरे पर लिंक देने की बात भी हुई. अजय जैन, अभिशेक कांत ,आशीष चोपरा आदि लगातार अपने विचार रखे जा रहे थे.जिस बात की पहले आशंका व्यक्त की जा रही थी कि प्रायोजक ही छाये रहेंगे, ऐसा कुछ तो नहीं दिखा. हां सभी को माइक्रोसोफ्ट के नाम वाली एक छोटा सा राइटिंग पैड तथा एक बाल पेन ज़रूर दिया गया. चना चब्रेना चाय आदि भी शायद प्रायोजकों की ओर से हो !!

हिन्दी जगत से हिन्द-युग्म के शैलेश, गाहे-बगाहे के विनीत, भडास के यशवंत, ब्लोग्वाणी के सिरिल, सराइ संस्था के राकेश, सृजन शिल्पी , चक्रधर , आदि ने विचार रखे. भडास के यशवंत जी ने तो कह भी दिया कि भैया हमारे इर्द गिर्द घूम कर अंग्रेज़ी बोलकर हमें मत डराओ,साथ में बैठकर बात करो. शैलेश ने अपनी सेवाएं प्रस्तुत की यदि उन्हें प्रायोजक मिल जाये. ( बाद मे शैलेश आश्चर्य कर रहे थे कि इन लोगों को प्रायोजक मिल गया, हमें क्यों नही मिलता, मैने कहा कि यही तो फर्क है-भारत और इंडिया में). रफ्तार डोट कोम वाले पीयुश जी थे ,अविनाश वाचस्पति जी भी मिले. ठंड बढने लगी थी, चाय के दो दौर आग के चारों ओर घूमते घूमते चल चुके थे. आयोजकों ने इशारे समझे और .....

इस तरह समापन हुआ इस आधी अधूरी पिक्निक का .


( photos from www.delhibloggers.in )
मीट की और फोटो देखने के लिये यहां जायें )

Tuesday, January 8, 2008

बचपन की 'बकनरी' उर्फ आओ बकनर -बकनर खेलें

सुनील गावस्कर ने अपनी पहली पुस्तक 'सन्नी डेज़' में ( मेरी यददाश्त सही है तो!!) Newzealand में खेले गये मैच का जिक्र करते हुए लिखा था कि जब एक खिलाडी क्लीन बोल्ड हो गया तो भारतीय टीम ने अपील की. इस पर अम्पायर बौख्लाकर बोला कि'ही इज़ क्लीन बोल्ड'he is claen bowled, इस पर गैन्दबाज़ ( भागवत चन्द्रशेखर) ने पूछा ' we know he is bowled but is he out वी नो ही इज़ क्लीन बोल्ड, बट इज़ ही आउट?"

क्रिकेट में ऐसे उदाहरण अक्सर मिल जाते थे और चठ्कारे ले ले कर इनका जिक्र होता था. एक ज़माना था जब पाकिस्तानी अम्पायर्स के बारे ऐसे अनेक किस्से होते थे. फिर neutral umpires का दौर आया. Technology और री-प्लेज़ का सहारा लिया जाने लगा. किंतु अभी भी समस्या से क्रिकेट जगत उबरा नही है. कुच समय पहले सचिन के बार बार विवादास्पद तरीके से आउट होने पर मैने एक पोस्ट लिखी थी ,जिसमे पूछा था कि कहीं यह साजिश तो नहीं(पोस्ट यहां देखें).

बचपन में जब हम( कानपुर के फूलबाग मैदान में) क्रिकेट खेलते थे तो हमेशा बल्लेवाज़ी करने वाली टीम का ही अम्पायर होता था. आम तौर पर हम बच्चे ( या कहें कि हर टीम) एक ऐसा बन्दा टीम में रखते थे कि जो डील डौल में अच्छा हो,दबंग हो, दूसरों को डरा धमका कर अपना फेसला मनवाने मे सक्षम हो.

कई ऐसे ही फ्रेंडली मेचों में तो विवाद से बचने के लिये पहले ही तय हो जाता था कि "एल बी डब्ल्यू-नाट आउट" .

ऐसी कई 'बकनर्री' के किस्से अभी भी याद है, जहां मैच बकनरी के चलते ही जीता गया.
एक तो कौलेज के दिनों का किस्सा है. शायद एलगिन मिल्ल्स के मैदान पर एक मैच खेल रहे थे. हमारे ही कौलेज का सेंचुरी मेन हमारी विपक्षी टीम में था. कुछ दिन पहले ही उसने दो सेंचुरी मार कर शहर में नाम पैदा किया था.में अपनी टीम में मुख्य गैन्दबाज़ था.हमारी टीम के एक अन्य खिलाडी का एक मित्र विपक्षी टीम में था. जब वह सेंचुरी मेन बैटिंग हेतु आया तो उसने अपने मित्र को, जो विपक्षी टीम ओर से अम्पायर था, आंख से इशारा कर दिया.
उसने क्या क्या बकनरी की, अब याद करता हूं तो हंसीं आती है. कोई ओवर 5 गेन्द का तो कोई 8-8 का. पर सबसे मजेदार था एल बी डब्ल्यू आउट होना उस सेंचुरी मेन का. गेन्द बस पैड पर लगी ही थी और वो भी विकेट से बाहर, बस सिर्फमैने अपील की और निर्णय हुआ आउट.
फिर तो वो हंगामा हुआ कि बस. मात्र सिर फुटोव्वल ही नहीं हुई बल्कि सब कुछ हो गया. उस जयचन्द/मीर ज़ाफर की जो दुर्गति हुई कि बस. अब भी वो मैच याद आता है . आज फिर वो बकनरी याद आ ही गयी.

Saturday, January 5, 2008

थ्री चीयर्स टू किरन बेदी

कुछ दिनों पहले भारत की पहली महिला आई पी एस होने का गौरव पाने वाली किरन बेदी ने स्वेच्छिक अवकाश (VRS ) ले लिया. बहुत पुरानी बात नहीं है, जब उन्हें दिल्ली का पुलिस कमिश्नर न बनाकर उनसे एक कनिष्ठ अधिकारी को यह पद दे दिया गया था. सुश्री किरन बेदी ने उस समय ही यह लगभग स्पष्ट कर दिया था कि अब इस घोर उपेक्षा के बाद उन्हें सेवा में अधिक दिलचस्पी नहीं रह गयी है. (केन्द्रीय गृह मंत्रालय के इस पक्ष्पाती रवैये पर मेरी पोस्ट यहां देखें)

VRS के बाद अब किरन ने एक और सराहनीय कदम उठाया है. उनके द्वारा पहले से ही चलायी जा रही स्वयंसेवी संस्था के तत्वावधान में उन्होने ‘मिशन सेफर इंडिया’ ( Mission Safer India ) नामक सेवा प्रारम्भ की है. यह सेवा उन सभी व्यक्तियों की मदद करेगी जिन्हे पुलिस से न्याय नही मिला है, अथवा जिनकी शिकायतों पर पुलिस ने गौर नही किया है. निश्चय ही यह एक सराहनीय प्रयास है जिससे हज़ारों लोग लाभांवित होंगे. इस संस्था द्वारा पहले से ही जेल सुधार, कैदियॉं के बेसहारा बच्चों के लिये मदद, महिला सशक्तीकरण जैसे नेक कार्य किये जाते रहे है ज़ाहिर है किरन बेदी जैसे कुशल प्रशासक के नेतृत्व में ये सभी गतिविधियां समाज सुधार में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर पायेंगी. हम सभी को ऐसे कार्य में इस प्रकार की संस्थाओं की भरपूर मदद करनी चाहिये. विस्तृत जानकारी के लिये देखें www.indiavisionfoundatio.org तथा www.saferindia.com
किरन बेदी का रेडिओ पर एक chat show भी आता है,जिसमें वह इस प्रकार की सलाह देती हैं.हालांकि उसमें अनेक कमियां भी है, परंतु फिर भी ऐसे कार्यक्रम कुछ लोगों को तो रास्ता दिखाते ही हैं,जिन्हें इसकी सख्त ज़रूरत है.

Thursday, January 3, 2008

मृत्यु ने झकझोर दिया था मुझे : 34 दिन बाद ब्लोग पर वापसी

सभी के साथ अंतत: यह होना है. सभी को कभी ना कभी इस अनुभव से गुजरना ही है. हर घर मे किसी न किसी की मौत हुई है. यही शाश्वत सत्य है.बाकी सब माया है.
अनेक दिनों तक ये विचार मन में आते रहे. रोज़ एक तरह की दहशत सी बनी रही. अनेक दिनों तक मृत्यु के भय से मुक्त नहीं कर पाया स्वयं को.
न केवल भय, बल्कि मन में संसार के नश्वर होने की वास्तविकता इस कदर मन पर छायी रही कि अनेक दिनों से कुछ काम काज भी अनमने ढंग से ही करता रहा. बल्कि यूं कहना चाहिये कि ..बस होता ही रहा .

25/26 नवम्बर2007 की रात को तसलीमा नसरीन के विषय पर पोस्ट लिखी थी. उसी दिन खबर मिली कि हमारी ही सोसाइटी में 7वें तल पर रहने वाले डा.अरविन्द गुप्ता नही रहे. लगभग 40 वर्ष के रहे होंगे.दो छोटे छोटे बच्चे हैं उनके. सुबह शाम मुलाक़ात हो ही जाती थी.पिछली शाम ही में गेट से अपनी कार में निकल रहा था, उनकी कार प्रवेश कर रही थी. कोई बीमारी नही. स्वयम रेडियोलोजिस्ट थे.पत्नी व घर वालों का बुरा हाल देखा नहीं जा रहा था. लगा कि चारों तरफ बस यही स्वर गूंज रहा है:जीवन नश्वर है -सब कुछ माया है. कौन कब चला जाये,कोई भरोसा नही.मन अवसाद से भर गया.

तीन दिन पहले ही एक और रिश्तेदार के एक-डेढ वर्षीय पुत्र के बारे में खबर आयी थी. पति-पत्नी बंगलौर में रहते थे.जरा सी लापरवाही..और उनके सपनों का राजकुमार नही रहा-मामूली डायरिया से शुरुआत हुई.और बस सारे सपने चूर..अभी कुछ दिनों पहले ही नये घर में प्रवेश किया था,बच्चे का कमरा बडे शौक से सजाया था.सब बच्चे को अपने दादा दादी के घर दिल्ली अंतिम क्रिया के लिये लाया गया तो वही भयानक चीख पुकार..,डरावनी. दिल को झकझोरने वाली.

तीन दिन बाद ..29 नवम्बर 2007.मैं (AIMA की )एक गोष्ठी मे भाग ले रहा था. फोन को silent mode पर रखा था.चूंकि सम्वाद जारी था अत: calls को नहीं ले रहा था. सोचा था सारी missed calls का लंच के समय जवाब दूंगा. एक न बन्द होनी वाली call जब ली तो भाव शून्य हो के रह गया. पता लगा कि कानपुर मे रहने वाले मेरे बडे भाई साहब नही रहे. मैं चुप. कोई प्रतिक्रिया नही हो पाई. फिर सभी वक्ताओं व सहभागियों से माफी मांगते हुए मात्र यह कह कर निकला कि tragic news है, माफ करें मुझे जाना पडेगा.

अगले कुछ दिन कानपुर में. अंतिम यात्रा -श्मशान घाट, अंतिम संस्कार ,वही सब कुछ.
इधर अंदर ही अन्दर टूट सा गया था. मन को ढांढस बन्धाने की स्वयम ही कोशिश करता परंतु मन की निराशा थी कि दूर ही नही हो पा रही थी. शायद यह निराशा नही एक भय अधिक था-वह भय जो आपको झक्झोर देता है.

वापस दिल्ली आया तो किसी काम में मन न लगना जारी रहा. तेरहवीं पर फिर कानपुर गया,लौट्कर धीरे धीरे सारी शक्ति जोडकर फिर सामान्य होने की भरपूर कोशिश. फिर दिल्ली वापस. किंतु हालत वही. Bank Managers के लिये आयोजित trainig programme में पढाना था. किसी तरह वह भी पूरा किया. मन में नैराश्य़ इतना अधिक बढ गया था कि बहुत अधिक चिड्चिडा सा हो गया था. मेरा 18 वर्षीय पुत्र सब कुछ भांप रहा था. अनेक दिनों के उसके प्रयास के बाद एक प्रेरणा दायक सीडी देखी ( इस महत्वपूर्ण विषय पर विस्तार से फिर कभी),मन हल्का हुआ.भय क्रमश्: कम हुआ. निराशा भी दूर हुई. ( पत्नी रोज़ कहती रहती थी कि ब्लोग पर कुछ लिखो, मन लगेगा, पर सम्भव ही नही हो पा रहा था).

इस बार सोसाइटी वालों ने परिस्थिति को देख कर नये वर्ष का उत्सव भी नहीं मनाया.

इस बीच ब्लोग्वाणी व चिट्ठाजगत पर झांक कर कभी कभी देख लेता था कि क्या चल रहा है, परंतु स्वयं को टिप्पणी करने लायक भी नही बना पा रहा था.

आज महर्षि के ब्लोग पर बनारस पर पोस्ट पढी तो ब्लोग पर टिप्पणी के साथ 34 दिन बाद वापसी हुई.
25/26 नवम्बर 2007 के बाद पहली पोस्ट है. शायद वही पुराना क्रम् फिर चालू हो जाये.

सभी को नव वर्ष की शुभकामनायें.