Sunday, September 21, 2008

कवि सम्मेलन

महाराष्ट्र मित्र मंडल द्वारा गणेशोत्सव 2008 के अवसर पर इस माह की 3 तारीख को द्वारका ( नई दिल्ली )में एक भव्य कवि सम्मेलन आयोजित किया गया. अध्यक्षता वरिष्ठ कवि श्री लक्ष्मी शंकर बाजपेयी ने की एवं संचालन डा. कीर्ति काले ने किया. सम्मेलन का प्रारम्भ कीर्ति काले द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वन्दना से हुआ. तत्पश्चात मनोहरलाल रत्नम ने हास्य रचनाएं सुनाकर श्रोतागणों को हंसाया. फिर रमेश गंगेले ,अरविन्द चतुर्वेदी,अशोक शर्मा ,महेश गर्ग बेधडक अमर नाथ अमर ,दिनेश रघुवंशी,कीर्ति काले का काव्य पाठ हुआ. समापन लक्ष्मी शंकर बाजपेयी की मधुर रचनाओं केसाथ हुआ. इस अवसर पर काव्य पाठ के कुछ अंश प्रस्तुत हैं. (शेष बाद में प्रस्तुत करूंगा)

Monday, July 14, 2008

दुमदार दोहे : महंगाई और न्यूक्लियर डील

पिछले कुछ कवि सम्मेलनों में मैने राजनैतिक सन्दर्भ वाले कुछ दुमदार दोहे सुनाये एवम श्रोताओं ने इन्हे बहुत पसन्द किया.
प्रस्तुत हैं कुछ ऐसे ही दुमदार दोहे .


कम्युनिस्टों के खेल ने किया रंग में भंग,
आडवाणी जी पीटते घर में ढोल मृदंग .
गीत सावन के गायें,
चलो सरकार बनायें.



अमर सिंह जी कर रहे तेरह मे से तीन,
मनमोहन निश्चिंत हो ,बजा रहे हैं बीन.
दाल में कुछ है काला,
समर्थन मिलने वाला .



डील डील सब कर रहे ,इसका ओर न छोर,
सिंह मुलायम देखते अमरीका की ओर.
दूर की कौडी लाई
ज़ेब में सी बी आई.


शिरडी पहुंची सोनिया, लेने आशिर्वाद,
जनता भई नाराज तो, आये सांई याद .
बडा गडबड घोटाला,
इलेक्शन आने वाला.


यू पी में हल्ला मचा, हाय हाय चहुं ओर
माल सहारा तोड दे, माया का है ज़ोर.
न लेना इससे पंगा
करा देगी ये दंगा.


साइकल महंगी हो गयी ,इसका क्या है राज ?
दाम तेल के बढ गये, साइकल पर शिवराज.
सी एम अब काम करेगें
कार के दाम गिरेंगे .



मुझसे यूं कहने लगे चिदम्बरम महाराज
महंगा है पेट्रोल तो, होता क्यूं नाराज ?
ज़रा सा पैदल चल ले,
पैर मज़बूत तू कर ले .



राबडी जी कहने लगीं,कर घूंघट की ओट
अगले आम चुनाव में हमको देना वोट .
किचन में आलू होंगे
मिनिस्टर लालू होंगे .



संसद में नारे लगे ,सुन लो माई बाप
आधी महिला सीट हों,आधे पर हों आप .
चेयर पर नारी होगी,
सभी पर भारी होगी.

Sunday, June 29, 2008

जा रहा हूं, मगर लौट कर आऊंगा

जा रहा हूं, मगर लौट कर आऊंगा,
सबसे कहना सही वक्त पर आऊंगा.


मैं जवां हूं, भट्कने में कुछ डर नहीं,
जब भी थक जाऊंगा,अपने घर आऊंगा.


दूर था ,इसलिये सबने देखा नहीं
हर जगह देखना अब नज़र आऊंगा.


जंग छोटी - बडी कोई होती नहीं
जंग जैसी भी हो जीत कर आऊंगा.

चौंकना मत अगर मेरी दस्तक सुनो,
देके आने की पहले खबर ,आऊंगा .


आगे जो भी सफर,होंगे अपने ही पर
पंख थे जो पराये, कतर आऊंगा .



आके वापस दुबारा न जाना पडे,
पूरा करके ही अपना सफर आऊंगा.


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Saturday, June 28, 2008

जा रहा हूँ मगर लौट कर आऊंगा

Friday, June 27, 2008

मैं यहीं हूं, यहीं कहीं हूं

अप्रैल 2007 में चिट्ठाकारी शुरु करने के बाद यह दूसरा मौका है कि मेरे सभी ब्लौग ( भारतीयम, बृजगोकुलम एवं दिल्ली एक्सप्रेस) लगभग दो माह तक नितांत सूने व खामोश रहे.

कारण गिनाने से क्या फायदा? बस यही काफी होगा कि परिवारिक व्यस्ततायें तथा विवश्तायें समय निकालने ही नही देती. हां अभी कुछ और वक़्त लगेगा.

इस बीच यदि ब्लोग से दूर रहा हूं तो समय अन्य कार्यों में लग ही रहा है अत: कुछ खिन्नता तो है पर कुंठा नहीं.
रचनात्मक लेखन, कवि सम्मेलन भी निरंतर जारी हैं.
कुछ यात्रायें भी ,इस बीच, हो गयीं. इन यात्राओं का विवरण भी शीघ्र ही किसी ब्लोग पर आयेगा.
एक अधूरी सी गज़ल अगली पोस्ट में कल ही दूंगा.


जा रहा हूं मगर लौट कर आऊंगा.......

Tuesday, April 15, 2008

क़ैसे हुआ प्यार अन्धा ? क़्यों होता है प्यार पागल ? अजब कहानी सुनी पहली बार्

जब भी प्यार का जिक्र आता है, यह ज़ुमला बार बार दोहराया जाता है कि 'प्यार अंधा होता है' (Love is Blind). साथ ही यह भी कहा जाता है कि प्यार में प्रेमी पागल हो जाते हैं. (Love is always accompanied by madness)
इन परिभाषाओं को सिद्ध करने वाली ,एक नहीं अनेक जीवंत घटनायें हमें आये दिन सुनने को मिल जाती है. किंतु ऐसा क्यों होता है? मैने कभी इस को ढूंढने का प्रयास नहीं किया और न ही यह कहीं पढने में आया कि 'प्यार क्यों अंधा होता है' या प्यार में प्रेमी क्यों पागल हो जाते हैं.मनोविज्ञान के विद्यार्थियों को इसका कारण ज़रूर मालूम होगा. परंतु मैने इस का एक विचित्र वर्णन पढा तो मैने सोचा क्यों न इसे औरों को भी बताया जाये.

मेरे एक मित्र हैं डा. क़रण भाटिया.बिजनौर में एक इंजीनीयरिंग कालेज के निदेशक हैं. आई आई टी बम्बई में होस्टल में हम साथ थे. ( शायद पहले भी किसी पोस्ट में जिक्र आया है)वे अक्सर रोचक सामग्री ई-मेल से भेजते रहते हैं.आज एक मेल में उन्होने 'another beutiful story' शीर्षक से जो सामग्री भेजी,मुझे बहुत भाई और हिन्दी में अनुदित करके मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं.( मैने इसमें थोडा संशोधन अपनी तरफ से भी कर दिया है)

बात तब की है जब ईश्वर ने मनुष्य की रचना नहीं की थी. हां रचने के लिये सारी सामग्री जुटा ली थी. इस सामग्री में बहुत से मानवीय गुण भी थे, जो मनुष्य के शरीर बनाने के बाद उसमें डाले जाने थे.
इन गुणों में घृणा, सुन्दरता, कोमलता, लचीलापन, प्यार, सच, झूठ, मक्कारी, बे ईमानी ,शर्मो-हया, पागलपन, अकुलाहट, धोखा, आदि आदि सारे गुण शामिल थे,जो ईश्वर को भिन्न भिन्न शरीरों में अलग अनुपात में डालने थे.ईश्वर ने उन सबको एक खुले स्थान पर छोड़ दिया और कहा जाओ कुछ देर खेलो.
सारे गुणों ने मिल्कर छुपन-छुपाई (hide & seek) खेलने का फैसला लिया. सभी गुणों को छुपना था और पागलपन् (madness) को ढूंढने का जिम्मा दिया गया.

सच ने कहा वह पेड के पीछे छिपेगा. झूठ ने कहा कि वह चट्टान के पीछे छिपेगा ,किंतु छिपा जाकर तालाब में .घृणा छिपी जाकर झाडी में. इस तरह सभी गुण जाकर छुप गये तो पागलपन उन्हे ढूंढने निकला.

सबसे पहले ज़ाहिर है सच पकडा गया,क्यों कि वह सबके सामने था. प्यार अकेला ऐसा गुण था जो कहीं छुप ही नही पा रहा था. जब कुछ समझ में नहीं आया तो प्यार गुलाब के फूल में जाकर छुप गया. पागलपन ने बडी जुगत लगायी और धीरे धीरे सबको पकड लिया. प्यार तो फूल में छिपा था अत: पकड में नहीं आया.

फिर 'चुगली' ने जाकर चुपचाप पागलपन को बता दिया कि प्यार तो गुलाब के फूल में छिपा है. बस फिर क्या था. पागलपन ने इधर उधर अभिनय करके गुलाब की क्यारी पर छलांग लगा दी. गुलाब के सारे के सारे कांटे प्यार के बदन मे गढ गये ,यहां तक कि कांटे प्यार की आखों में भी चुभ गये और प्यार अन्धा हो गया.

खूब बावेला मचा. कोहराम सुनकर ईश्वर आया तो देखा कि प्यार तो अन्धा हो गया है और उसे कुछ सूझ नहीं रहा है. जब सारी घटना की जानकारी ईश्वर को हुई तो उसने पागलपन को आदेश दिया कि चूंकि तुम्हारे कारण से प्यार अंधा हुआ है अत: इसकी जिम्मेदारी अब तुम्हारी ही है. अब तुम इसे कभी अकेला नहीं छोडोगे, और हमेशा इसके साथ रहोगे.


तब से प्यार के साथ साथ पागल पन भी रहता है.अन्धा तो प्यार हो ही गया था.

Friday, April 11, 2008

तिब्बतियों से एक सवाल

मैं उन सभी तिब्बतियों से एक सवाल पूछना चाहता हूं जो चीन में आयोजित होने वाले ओलम्पिक खेलो का विरोध कर रह्वे है. आखिर उन्हें अपने एक राजनैतिक प्रश्न को लेकर ओलम्पिक खेलों के प्रति विरोध करने का क्या अधिकार है?
तिब्बत में मानवाधिकार का प्रश्न एक अलग प्रश्न है . ओलम्पिक खेलों का आयोजन इससे बिलकुल अलग देखा जाना चाहिये.
ओलम्पिक खेलों का आयोजन का एक पवित्र लक्ष्य है,जिसका राजनीति से कोई सम्बन्ध नही है.यह एक संयोग हो सकता है कि इस वर्ष ओलम्पिक खेलों का आयोजन चीन में हो रहा है . ओलम्पिक खेलों पर किसी एक देश का एकाधिकार नही है. ये खेल समूचे विश्व के खेल हैं. इनका आयोजन एक पवित्र लक्ष्य को लेकर ही होता आया है.
चीन का शासक कौन है ? वहां क्या शासन प्रणाली है?
चीन के शासकों के सम्बन्ध वहां की प्रजा से कैसे हैं और कैसे होने चाहिये. चीन के एक प्रांत तिब्बत में क्या राजनैतिक समस्या है ? उसका क्या हल है? आदि आदि ... अनेकों प्रश्न ऐसे हैं जिन पर अलग अलग लोगों की राय अलग भी हो सकती है?


परंतु इन सभी प्रश्नों को ओलम्पिक के आयोजन से कदापि नही जोडा जाना चाहिये.

ओलम्पिक की मशाल की अपनी एक महत्ता है. राजनैतिक प्रश्नों को बीच में ला कर ओलम्पिक की भावना से खिल्वाड किया जा रहा है, यह गलत है. इसकी निन्दा व भर्त्सना की जानी चाहिये.


मैं सभी तिब्बतियों से अपील करता हूं कि वह ओलम्पिक मशाल के विरुद्ध अपना आन्दोलन वापस ले लें.उनके सभी प्रश्न ज़ायज़ हैं, उन पर पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित हो चुका है. उन पर विचार किया जाना चाहिये. चीन सरकार को इसका हल निकालना चाहिये. परंतु ओलम्पिक खेलों में इस प्रश्न को लेकर विघ्न डालना ठीक नहीं .यदि खेलों पर इस विरोध की काली छाया असर डालती है, तो सबसे ज्यादा असर खिलाडियों पर ही पडेगा, जिन्होने पिछले चार वर्ष सिर्फ खेलों की तैयारियों मे ही लगायें हैं.

आपका दिल कहां है ?

ज़रा सोचिये. दिल चीज़ क्या है ?
कहां होता है दिल ?
क्या सबका दिल एक ही जगह पर होता है?
ज़ाहिर है कि इन सभी सवालों का एक ही ज़वाब है कि दिल तो आखिर दिल ही होता है?
सभी का दिल छाती पर बांयी तरफ हो ता है.
इस पर इतना बावेला क्यों

अब आइये ज़रा इस फोटो पर गौर करें,पहचान? रहे हैं ना ?

देखा ? इनका दिल कहां है?




Saturday, March 22, 2008

यूं तो हम पंगे नहीं लेते, पर होली की बात ही कुछ और है - भडास,मोहल्ला, ग्रेग चैपल और देवेगौडा-सब एक साथ्

वैसे तो पंगे लेना अरुन अरोरा जी की ठेकेदारी में आता है. हमारा इस कला / क्रिया /कार्य कलाप से दूर दूर का वास्ता नहीं है ,पर यार होली कोई रोज़ रोज़ थोडी ही आती है.

तो हमने सोचा कि थोडी देर के लिये हो जाये कुछ नया और लेने लग गये ...पंगे.

होली के पंगे हों और चंडूखाने की बात न चले ,ये तो हो ही नहीं सकता.तो भैया जी मैने खोला अपना बस्ता और निकाली चंडूखाने की नयी नयी खबरें.

बमुश्किल तीन खबरें ही बन पायी थी कि पता चला ( पडोस का) मुर्गा भी ( भांग खाकर) बांग देने की सोच रहा है. घडी ( खराब) देखकर तीन पर ही तसली कर ली.


पहली खबर भडास का मोहल्ले से होली मिलन.


दूसरी खबर - ग्रेग चैपल बनेंगे हौकी टीम के कोच


और तीसरी खबर - देवेगौडा बनेंगे थर्ड अम्पायर्

पूरी तरह होलियाना चुहल यानी पंगा. ( मान कर चल रहा हूं कि इसे होली की तरंग में ही लिया जायेगा )


बुरा ना मानो होली है.

ऐश्वर्य जब तुम्हे पुकारे "अंकल जी" ..........

नाचो दे दे ताल ,मजे लो होली में,
गालों मलो गुलाल, मजे लो होली में.


रंग -बिरंगे चेहरों में ढूंढो धन्नो,
घर हो या ससुराल, मजे लो होली में.


हुस्न एक के चार नज़र आयें देखो,
ऐनक करें कमाल,मजे लो होली में.


ऐश्वर्य जब तुम्हे पुकारे "अंकल जी"
छू कर देखो गाल, मजे लो होली में.

लड्डू पेडे गूझे,गुझिया,माल पुआ,
खाओ सब तर -माल मजे लो होली में.

मिले रंग में भंग, मज़ा तब लो दूना,
बहकी बहकी चाल, मजे लो होली में.

बीबी बोले मेरे संग खेलो होली,
बैठो सड्डे नाल मजे लो होली में.



नाचो दे दे ताल ,मजे लो होली में,
गालों मलो गुलाल, मजे लो होली में.

Saturday, March 1, 2008

ज्ञानेन्द्रपति की कविता ----आप साहित्य प्रेमी हैं अथवा नहीं- इसे अवश्य पढें

अर्सा पहले एक मशहूर कवि की पुस्तक प्रकाशित हुई. जैसा कि अपेक्षित था-पुस्तक काफी चर्चित हुई. एक हिन्दी पत्रिका में पुस्तक की समीक्षा करते हुए आलोचक ने लिखा कि पुस्तक की अधिकांश रचनायें राजनैतिक टोन वाली हैं और तथा इन कविताओं का राजनैतिक तत्व उन पर हावी है,जो कविता को कमज़ोर करता है.

1999 में मेरा दूसरा संग्रह “चीखता है मन” प्रकाशित हुआ. ( भूमिका श्री कन्हैयालाल नन्दन ने लिखी थी). इसके परिचय में मैने लिखा कि यदि कवि की रचना पर उसका राजनैतिक सोच हावी होता है तो क्या हर्ज़ है? प्रश्न सिर्फ यह होना चाहिये कि कवि अपने सोच के प्रति ईमानदार है अथवा नहीं.
पिछले माह पुस्तक मेले में किताबघर द्वारा प्रकाशित ‘कवि ने कहा’ ( ज्ञानेन्द्रपति) के पन्ने पलट रहा था. पहली ही कविता दिल को छू गयी और पुस्तक खरीद ली. मेले से घर वापसी के लिये जैसे ही प्रगति मैदान स्टेशन से मेट्रो में बैठा ,अपना स्टेशन ( द्वारका ) आने तक अनेक कवितायें पढ़ गया. तब से कई कवितायें दो दो बार पढी हैं, घर पर बच्चों को भी सुनायी हैं . हांलाकि मैं रचनाकर की राजनैतिक सोच से सहमत नहीं हूं ,परंतु कविता से बुरी तरह प्रभावित हूं, या कहिये कि मुरीद हो गया हूं.
य़ह सब इसलिये कहना पडा कि मैं चाहता हूं कि आप इस कवि को पढें. उनकी कुछ कवितायें बहुत लम्बी है, तीन रचनायें ,जिनसे कवि का सोच उजागर होता है और तेवर झांकता है, यहां प्रस्तुत हैं.---)



कुछ कविताऎं और कुछ कविताऍं

कुछ कविताऍं
तो मैं खेतों से शकरकन्द की तरह खोदकर लाया
कुछ कविताऍं
तितलियों की तरह ,खुली खिडकियों से,
घुस आयीं मेरे घर
कि अपने घर .
कुछ कविताओं के लिये मैं कितना कितना घूमा
गो-यूथों के पीछे पीछे चरवाहे बालक सा ,
कि सांझ उन्हें दुह सकूं
धारोष्ण.
कुछ कविताऍं
कई कई बिट्वन की कुतिया माता सरीखी
दुधीले थन और गीली थूथन लिये ,
लगीं चलीं आयीं सडक से
पीछे पीछे मेरे दुआरे.,


एक गर्भवती औरत के प्रति

यह तुम्हारा उदर ब्रह्माण्ड हो गया है.
इसमें क्या है? एक बन रहा शिशु भर?
झिल्ली में लिपटी मांस पहनती चेतना. बस ?
कितनी फैलती जा रही है परिधि तुम्हारे उदर की
तुम क्या जानो कि अंतरिक्ष तक चली गयी है यह विरूप गोलाई और ये
पेड-पौधे,मकान,सडकें,मैं,यह पोल ,वह कुत्ता,उछलता वह मेढक,
रँभाती गाय,बाड़ कतरता माली, क्षितिज़ पर का सूरज
सब उसके अन्दर चले गये हैं और तुम भी.



नदी और नगर
नदी के किनारे
नगर बसते हैं
नगर के बसने के बाद
नगर के किनारे से नदी बहती है,

Wednesday, February 27, 2008

क्या बर्फ सचमुच पिघलेगी ?


समूचे विश्व में पिछले 15-20 वर्षों में राज्नैतिक घटनाक्रम लगातार बदलता रहा है. या यूं कहें कि इसे बदलने के प्रयास लगातार कामयाब होते दिख रहे हैं.
मेरी दो छात्रायें वियतनाम से हैं. उनसे बात करता हूं तो पता लगता है,उन्हे एहसास ही नहीं कि वियतनाम कभी बंटा हुआ भी था. जर्मनी में इतनी वारिशें हुई हैं कि आम जर्मन के लिये पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का फर्क़ धुल गया सा लगता है. दूसरी तरफ सोवियत संघ कब का समाप्त हुआ. चेकोस्लोवाकिया बंट गया, फिलस्तीनी अब भी अपनी ज़मीन के लिये लड रहे हैं. टिब्बत, चीन, ताईवान का मुद्दा समाप्त नही हो पाया है. यानी दो तरह के हालात हैं दुनिया में . कहीं लोग जुड रहे हैं और कहीं बिखर ( बिछुड) रहे हैं.

आज जब खबर आयी कि दो कोरिय्याई देश ( दक्षिण कोरिया व उत्तर कोरिया) के बीच मत्भेद समाप्त करने के लिये अमरीका भी प्रयास कर रहा है तो अनायास ही मुझे 1989 की अपनी प्योंग्यांग ( उत्तर कोरिया की राजधानी) यात्रा याद आ गयी.
अमरीका ने सौ से अधिक सदस्यों वाला एक संगीत समूह ( आर्केस्त्रा)दोनों देशों की यात्रा पर भेजा है, जो संगीत के माध्यम से दूरियां घटाने का प्रयास करेगा. प्योंगयांग में इसे सराहा गया है तथा इस ग्रुप को लोकप्रियता भी मिली है.एक प्रकार से यह उस प्रयास का विस्तार ही है, जिसे दोनो देशों के प्रमुख पिछले अनेक वर्षों से करते आ रहे हैं. आने वाला समय ही बतायेगा कि बर्फ वाकई पिघलेगी अथवा नहीं.

मेरी प्योंगयांग यात्रा- 1989
1988 के ओलम्पिक खेल सियोल ( दक्षिण कोरिया) को मिले थे, इससे दोनो कोरिय्याई देशों मे और दूरी बढ गयी थी. सोवियत संघ तब तक अस्तित्व में था और उसके प्रयास के बावजूद प्योंगयांग को खेलों की मेज़बानी नहीं
मिल पायी थी,जब कि प्योंगयांग ने खेलों की पूरी तैयारी कर रखी थी.इस तैयारी का लाभ उठाने के लिये तथा प्योंगयांग की साख बढाने के लिये 1989 में सोवियत संघ की मदद से विश्व युवा समारोह आयोजित किया गया था.

उन दिनों सोवियत संघ के तत्वावधान में एक अंतर्राष्ट्रीय युवा संघटन काम करता था( अधिकांश साम्यवादी देशों मे इसका खूब प्रसार था). भारत समेत अन्य देशों में भी साम्यवादी व समाजवादी विचारधारा वाले संग्ठन इससे सम्बद्ध थे.भारत में दक्षिणपंथी दलों ( भाजापा आदि) को छोडकर अन्य ( कांग्रेस,जनता-परिवार्, सभी रंग के कम्युनिस्ट ,तेलुगु देशम इसमें शामिल थे, सपा तब अस्तित्व में नहीं थी तथा बसपा बहुत छोटी पार्टी थी )

इस विश्व युवा समारोह में भाग लेने हेतु भारत से लगभग 400 युवा लोगो का एक दल भेजा गया था, जिसमे करीब 350 राजनैतिक दलों की युवा शाखाऑ के प्रतिनिधि थे व शेष 50 में युवा खिलाडी, संगीतज्ञ, पत्रकार आदि शामिल थे.सौभाग्य से में भी इसमें शरीक हुआ और प्योंगयांग की सैर का लाभ उठाया.राजनैतिक रूप से सक्रिय होने के कारण घटना क्रम में मेरी भी कुछ भूमिका थी. (वह भी धीरे धीरे इस लेख श्रंखला में आयेगा.)

चूंकि सारा खेल सोवियत संघ द्वारा प्रायोजित था अत: जाहिर है कि आन्दोलन का अगुआ होने के नाते खर्च भी उसे ही वहन करना था. पूरे विश्व से युवाओं को लेकर विश्व युवा समारोह हेतु प्योंगयांग पहुंचाने का दायित्व रूसी विमान सेवा ऐरोफ्लोट ने ही उठाया.

भारत से यह प्रतिनिधिमंडल ऐरोफ्लोट विमान सेवा मे सवार हुआ. ( शायद 9 मई 1989 को), और पाकिस्तान के एक एयर्पोर्ट ( शायद लाहोर-ठीक से याद नहीं) पर एक घंटा रुका,फिर ताश्कन्द, खबरस्त ,आदि होता हुआ लगभग 18 घंटे बाद प्योंग्यांग पहुंचा.
रास्ते में क्या क्या हुआ?,प्योंगयांग की यात्रा कैसी रही? अमरीकी पर्तिनिधि भी थे क्या? आदि आदि रोचक जानकारी मैं दूंगा -स्मय समय पर आने वाली पोस्ट में श्नै: श्नै:.(यदि रुचि है तो )इंतज़ार कीज़िये.

Thursday, February 21, 2008

पडोस में लोकतंत्र -कब तक़ आखिर, आखिर क़ब तक़्

मुशर्रफ तो मुशर्रफ, अमरीका तक को ये गुमान नहीं होगा कि पाकिस्तान में खिचडी पकने जा रही है. बेनज़ीर की शहादत आखिर रेंज लायी और पाकिस्तान की जनता ने आधे मन से ही सही, पर
अंतत: मुशर्रफ गलती कर ही बैठे. मजे से पूरे देश पर सेना के जनरल की तरह शासन चल रहा था.जनता यहां वहां थोडी बहुत ना-नुकुर कर तो रही ठीक परंतु हालात इतने खराब नहीं थे, क्यों कि पीछे से अमरीका का पूरा साथ था.
लेकिन जैसे हर जनरल का कभी न कभी अंत आता ही है, मियां मुशर्रफ भी लालच में आ ही गये. सोचा होगा कि किसी तरह एक बार जम्हूरियत (Democracy) का झुनझुना दिखाकर सत्ता हथिया ली तो फिर कोई चुनौती देने वाला भी नहीं बचेगा, आका ( अमरीका ) खुश होगा ,सो अलग. यानी दोनो हाथॉं में लड्डू. पर पांसा उल्टा पड गया.
1975 में जब श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने भारत में आपात काल घोषित किया था, तब उन्हें भी भान नहीं था कि कहीं न कहीं जनता विरोध भी कर सकती है. जब विरोध की सुगबुगाहट बढने लगी, तो इन्दिराजी ने भी वैसा ही सोचा था,जो मुशर्रफ ने अब सोचा था. जैसा इन्दिरा जी को झेलना पडा ( शाह कमीशन की जांच, फिर गिरफ्तारी आदि..), अब मुशर्रफ की बारी है.

भारत में तो लोक्तंत्र की जडें मज़बूत थीं और कानून-judiciary भी काफी हद तक़ स्वतंत्र ठीक सो वह बच भी गयीं और फिर शानदार वापसी भी की, परंतु पाकिस्तान और भारत की तुलना सम्भव नहीं है. जिस तरह मुशर्रफ ने वहां अदालत judiciary को तिगनी का नाच नचाया था, अब वही judiciary उनके पीछे पड जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये.

और फिर पाकिस्तान में तो यह खेल बहुत पुराना है. हर तानाशाह इस परिस्थिति से गुजरा है. बचा भी कोई नहीं, अयूब खां हों या जनरल टिक्का खां,और या जिया उल हक़, सबके सब उसी गति को प्राप्त हुए. अत: माना जाना चाहिये कि अब मुशर्रफ भी क़तार में है.

सरकार कौन बनाता है और कितने दिन चला पाता है, यह कहना पाकिस्तान जैसे मुल्क के लिये कुछ ज्यादा ही मुश्किल है.
हां एक बात ज़रूर ,कि भारत के सम्बन्ध कोई सुधरने वाले नहीं हैं. जब भी पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन हुआ है, भारत के सम्बन्ध बिगडे ही हैं.

Tuesday, February 19, 2008

मुशर्रफ!! अमरीका तुम्हे मरने नहीं देगा, हम तुम्हे जीने नहीं देंगे

अब वक़्त आ गया सा लगता है ,जब पाकिस्तान में तख्त उछाले जायेंगे और ताज उछले जायेंगे.शुरुआती

Monday, February 18, 2008

हाय राम ! इत्ते सारे फ्लाई –ओवर ( और फिर भी ढाक के तीन पात).






दिल्ली फ्लाई-ओवरों का शहर बनता जा रहा है. 1982 में जब यहां एशियाई खेल आयोजित हुए थे से अब तक फ्लाई-ओवरों का पूरा का पूरा जाल सा बिछ गया है. और अभी भी कम से बीस फ्लाई-ओवर और प्रस्तावित है तथा कुछ निर्माणाधीन हैं. यह् सब इसलिये ये कि यातायात (Traffic ट्रैफिक ) सुचारु रूप से चले. दिल्ली पर सडकें लगभग दो मंजिला हो गयीं हैं. अब प्रश्न यह है कि क्या इन सभी फ्लाई-ओवरों से यातायात कुछ सुधरा है ?
ज़हां जहां ये फ्लाई-ओवर बनाये गये थे वहां पहले अक्सर ट्रैफिक जाम लगा करता था. सुबह शाम ( peak hours ) बह्त मुश्किल हुआ करती थी. उस दृष्टि से उन चौराहों पर निस्सन्देह कुछ फर्क पडा है.परंत विशेष नहीं. इन फ्लाई-ओवरों से आगे निकलते ही सारा का सारा ट्रैफिक फिर जमा हो जाता है. यातायात की गति पर फिर भी कुछ असर नहीं पडता क्यों कि फ्लाई-ओवरों के तुरंत बाद जाम की वही ( बल्कि बदतर भी) स्थिति अब भी है.

पूरे दिल्ली में सभी जगह वही हाल है. आश्रम चौक ,पीरागढी, रजौरी गार्डेन, ओबेराय होटेल, डिफेंस कोलोनी, धौलाकुआं....... कहीं की भी हालत नहीं सुधरी है. और तो और गुडगांव जाने वाली एक्स्प्रेस-वे (express -way) के साथ बने डोमेसटिक एयरपोर्ट ( domestic Airport) वाले फ्लाई-ओवर की तो सबसे ज्यादा गयी बीती हालत है. द्वारका तथा एयरपोर्ट जाने वाला ट्रेफिक मिलकर ऐसी खराब हालत पैदा करतेहैं कि औसत आदमी यातायात व्यवस्था को कोसते हुये स्वयं को भी दोषी मानता है कि इधर आया ही क्यों.अनेकों व्यक्तियों की फ्लाइट छूट जाती है.

लगभग यही आलम पूरी दिल्ली में है,जहां भी फ्लाई ओवर बने हैं. ज़हां कहीं अभी निर्माण कार्य जारी है,वहां की हालत और भी बदतर है. एक या दो किलोमीटर के जाम में से निकलने के लिये घंटा-डेढ घंटा तो मामूली बात है.
आखिर कब सुधरेंगे हालात ?

Tuesday, February 5, 2008

लाइये जुगनू कहीं से खोजकर , और हमको रास्ता दिखलाइये

एक चिंगारी कहीं से लाइये,
इन बुझे शोलों को फिर भडकाइये.


इस अन्धेरे को मिटाने के लिये,
रोशनी का एक क़तरा चाहिये.


लाइये जुगनू कहीं से खोजकर ,
और हमको रास्ता दिखलाइये.


आपकी हर बात पर विश्वास है,
आप तो झूठी कसम मत खाइये.


क्या पता कोई कही ठुकरा न दे,
सबके आगे हाथ मत फैलाइये.

हर जगह सम्वेदना मिलती नहीं,
हर किसी का द्वार मत खटकाइये.


फेंकिये सारी नक़ाबें नोचकर,
असली चेहरा सामने तो लाइये

बस्तियों में भीड़ बढती जा रही है

बस्तियों में भीड़ बढती जा रही है
एक चिंगारी सुलगती जा रही है.


सारी ऊंची कुर्सियां हिलने लगीं,
भीड अब अंगड़ाई लेती जा रही है.

आग ज्यों ज्यों तेज़ होती जा रही है,
उन हवाओं को अखरती जा रही है.


राख में जो अब तलक खामोश थी,
आज अंगारे उगलती जा रही है.


ये हवा है तेज़ चाकू की तरह
पक्षियों के पर कतरती जा रही है.


चांद से शायद कहीं मतभेद है,
चांदनी छत पर उतरती जा रही है.


उसकी चुप है इक पहेली की तरह,
जितना सुलझाओ उलझती जा रही है.

Monday, February 4, 2008

यदि उत्तर भारतीय बदला लेने पर उतर आयें...

बम्बई देश की आर्थिक राजधानी कही जाती है. यदि कोई यह कहे कि बम्बई इसीलिये बम्बई है क्यों कि इसे मराठियों ने अपने श्रम और जीवट से यहां तक पहुंचाया है -तो मैं इसे मूर्खता पूर्ण बक्तव्य ही कहूंगा.
बम्बई ,बंग्लौर, पूना, अहमदाबद ,हैदराबाद ,नोएडा,या गुडगांव या देश का अन्य कोई भाग कितनी भी तरक्की करले,परंतु इसमें खून पसीना पूरे भारत का लगा हुआ है. यह हो सकता है कि स्थानीय लोगों का योगदान अन्य की अपेक्षा अधिउक हो, परंतु कोई यह तथ्य स्वीकार नहीं कर सकता कि बम्बई मराठियों की है और गैर-मराठी समुदाय का कोई योगदान नहीं है. बम्बई यदि देश के केन्द्रीय करों में एक तिहाई योगदान करती है तो यह सिर्फ मराठी समुदाय का योगदान नहीं है.

राज ठाकरे नये नये मुल्ला बने हैं ,कुछ ज्यादा ही प्याज़ खा रहे हैं . वेश्या नंगा नाच करके अपनी ओर नज़रें आकृष्ट करने लगेगी ऐसा ही प्रतीत हो रहा है.
देखिये निशाना किसको बना रहे हैं? बम्बई का तेक्सी वाला, कुली, मज़दूर, सब्ज़ीवाला दूधवाला, ...हां इनमे से अधिकांश उत्तर भारतीय ( यूपी या बिहार भी) हो सकते है,परंतु जिस दिन ये काम करना बन्द कर देंगे तो बम्बई में पूरा चक्का जाम हो जायेगा.

मनपा चुनाव के समय भी राज ठाकरे ऐसा नाटक कर चुके हैं. महौल चुनाव का था,बात आयी गयी हो गयी. अब पानी सर के ऊपर जा रहा है.

इस अधकचरे राज नीतिज्ञ से कोई पूछे-कि यदि उत्तर भारतीय बदला लेने पर उतर आयें... कितने मराठी मानुष हैं शेष भारत में..?( या उत्तर भारत मे.. ?)- कौन आयेगा बचाने..?

राज ठाकरे जैसों की जगह पागलखाना या जेलखाना है. भगवान ने उसे सद्बुद्धि दे दी तो ठीक, बरना इतना ठोका जायेगा कि अपने आप उसे सदबुद्धि आ जायेगी .

गीत गुमसुम है,गज़ल चुप है,रुबाई भी दुखी, .......... ऐसे माहौल में नीरज को बुलाया जाये।


कम ही होता है ऐसा कि जब मंच पर गोपाल दास नीरज अकेले कवि के रूप में बैठे हों, माइक हाथ में हो, और सामने बैठे श्रोता पूरे मनोयोग से नीरज की रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हों. बिल्कुल बिना किसी रोक टोक के. नीरज दिल से रचना पढ रहे हों,और श्रोता भी दिल से ही सुन रहे हों.

ज़ी हां ऐसा ही हुआ, 30 जनवरी को ,पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बडौत नामक स्थान पर.. बडौत के ‘शहजाद राय केलादेवी जैन स्मृति न्यास’ की ओर से नीरज जी को “संस्कृति गौरव सम्मन “ से नवाज़ा गया.. नीरज को शाल, प्रशश्ति- पत्र भेंट करके सम्मानित किया गया डा. सुब्रामंण्यम स्वामी द्वारा ,जो कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे. ( अध्यक्षता कर रहे गोविन्दाचार्य ,आये और बिना अध्यक्षीय भाषण दिये चले भी गये). मंच पर मेरठ क्षेत्र के डी आई जी विजय कुमार भी मौजूद रहे और कविता पाठ का भरपूर रस लेते रहे.. मुझे भी यह आनन्द प्राप्त हुआ..

जब कार्यक्रम की अन्य औपचारिकतायें पूरी होने के बाद नीरज की बारी आई तो उन्होने प्रारम्भ किया;
तन से भारी सांस है ,भेद समझ ले खूब
मुर्दा जल में तैरता ,जिन्दा जाता डूब
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फिर इसके बाद नीरज जी अपनी रौ में आ गये और फिर उन्होने झूमकर सुनाया-
अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड के कुल शहर में बरसात हुई
ज़िन्दगी भर तो हुई गुफ्तगू गैरों से मगर्
हम से अब तक न हमारी मुलाक़ात हुई.
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सिलसिला तो शुरू हो ही चुका था-नीरज जारी रहे -
आदमी को आदमी बनाने के लिये,
ज़िन्दगी में प्यार की कहानी चाहिये ,
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अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाये
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाये
आग बहती है है यहां गंगा में,झेलम में भी
कोई बतलाये कहां जा के नहाया जाये
मेरे दुख दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूं भूखा तो तुझसे भी ना खाया जाये
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किसी की आंख लग गयी ,किसी को नीन्द आ गयी
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खुशी जिसने खोजी वो धन लेके लौटा...
.....चला जो मोहब्बत को लेने
वो तन लेके लौटा ना मन लेके लौटा
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कहानी बन के जिये हम तो इस ज़माने में
तुम को लग जायेंगी सदियां हमें भुलाने में
जिनको पीने का सलीका न पिलाने का शऊर
शरीफ ऐसे भी आ बैठे हैं मैखाने में
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इसके बाद सम्मान का कर्यक्रम सम्पन्न हुआ. मगर ना सुनने वाले सिलसिला खत्म करना चाहते थे ना नीरज जी, अब फर्माइश हुई ...कारवां गुज़र गया.... फ़िर पूरे जोश मे ( 86 साल की उम्र है,मगर सुनाने का अन्दाज़ वही चिरपरिचित) गाया.
इस बार नीरज ने खुद ही कहा, अब मेरे मन का भी सुनो. अब उन्होने सुनाया –
ए भाई ज़रा देख के चलो,आगे ही नहीं पीछे भी,......
उन्होने वह पद भी सुनाया जो फिल्म में नहीं था. . रात के साढे दस बज चुके थे. हमें (मुझे व डा.स्वामी को) दिल्ली वापस भी आना था .
इस तरह समाप्त हुई वह नीरज की काव्य-सन्ध्या . मैं तो धन्य हो गया.

( नोट ; ऊपर लगा फोटो इस कार्यक्रम का नहीं है )

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Tuesday, January 22, 2008

गोविन्दा का नाम लो, झट कविता बन जाय ?

अशोक चक्रधर जी के ब्लोग पर अभी एक "कुंडली" गोविन्दा का थप्पड शीर्षक से पढी. यह वही कुंडली है जो, चक्रधर जी ने
हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दी" विषय पर आयोजित गोष्ठी ( इंडिया हेबिटेट सेंटर, 19 जनवरी ,2008 ) वहां चक्रधर जी ने सुनाई थी, यह कुन्डली.उनके मुताबिक कुंडली की परिभाषा है कि कुंडली जिस शब्द से शुरू होती है, उसी पर ख्त्म भी होती है . बस यही सोचकर मैने भी जवाब लिख मारा.

अब हो जाये जवाबी कुंडली ???


गोविन्दा का नाम लो, बस दिमाग हिल जाय्
थप्पड टीवी पर दिखे ,झट् कविता बन जाय
झट् कविता बन जाय, सुनाते फिरे चक्रधर
तीन दिनों में पहुंच जायेगी कविता घर घर
कहे कुंडली नया नवेला कवि अरविन्दा
थप्पड तो चख लिया, गुरु अब भज गोविंदा.

Sunday, January 13, 2008

दिल्ली ब्लौग्गर्स मीट: देखने हम भी गये थे पर तमाशा ना हुआ




खूब चर्चा थी कि गालिब के उडेंगे पुर्जे
देखने हम भी गये थे पर तमाशा न हुआ.
शनिवार को सुबह 10 बजे से दो बजे तक क्लास थी ,अत: चाहकर भी ब्लौग्गर्स मीट मे सुबह नही पहुंच पाया. अफ्सोस था कि कई चर्चे छूट जायेंगे,पर संतोष था कि कुछ तो पल्ले पडेगा,यदि तीन बजे तक भी पहुंच गये तो.
पहले तो गाडी हाईवे पर गलत लेन में घुसेड दी अत: तीन किमी. का चक्कर लगाना पडा. फिर ( इश्क़ की) घुमावदार गलियों में घूम घूम कर जब फार्म नम्बर 31 पहुंचा तो एन डी टी वी वाले कैमरामेन किसी का साक्षात्कार ले रहे थे.लगा कि मामला खत्म सा हुआ जाता है. परंतु नहीं .आगे चलकर दिखा कि कोई महाशय खडे खडे घूम घूम कर “प्रवचन” जैसा कुछ कर रहे है. , वहीं एक खाली कुर्सी देखकर में भी धंस लिया. भाषण जारी था, परंतु मेरी निगाहें किन्ही परिचित हिन्दी ब्लौगरों को खोज रहीं थी. अचानक किसी जुमले पर मैं भी हंसा और मेरे आगे बैठे सज्जन भी. मैने उनकी ओर देखा ,उनने मुझे . आंखे चार हुई. अरे! ये तो अपने मैथिली जी थे . नमस्कार हुआ. फिर उनके बगल मे बैठे सिरिल भी. थे कुछ क्षणों बाद प्रिय शैलेश भारतवासी भी दीख गये,तो लगा कि अपरिचितों के बीच नहीं हूं मैं.

इस बीच वह अंग्रेजी बोलने वाले ( जो बीच बीच में बता देते थे कि वह माइक्रोसोफ्ट के कर्मी हैं) ने अपनी बात समाप्त की. बात चीत का लहजा दोस्ताना था, परंतु महौल में कोई गर्मजोशी नहीं दिखी ( खुले आसमान के नीच बैठे थे सब और हवा में भी कडक की ठन्ड थी ) .बाद में जाना कि वह शख्स अभिशेक बख्शी जी थे). मैं तो हिन्दी ब्लोग जगत के प्रतिनिधि अमित भाई को ढूंढ रहा था, जो कहीं नजर न आये, मैं समझा ,सुबह के सत्र में आये होंगे). फिर चकल्लसी चक्रधर जी दिखे. माइक पर पहुंच कर उन्होने हिन्दी ब्लोग जगत के आंकडे बताये( जिनमें मैथिली जी ने टोक कर सुधार किया). फिर ( शायद चिट्ठाजगत से) हिन्दी ब्लोग के वर्गीकरण के आंकडे बताये. ळब्बा लुवाब यह कि हिन्दी में ग्रोथ कम है.
फिर उन्होने अपने ब्लोग के बारे में भ्रम दूर किया. उन्होने उस बालिका का जिक्र भी किया( वह भी मौजूद थीं) जो उनका ब्लोग लिखती है. इस सन्दर्भ में वे उस “खाली” पोस्ट का भी जिक्र कर गये जिस पर अनेक प्रतिक्रियायें आयीं.कुछ को उन्होने पढकर भी सुनाया) ( इसमें मेरी भी एक प्रतिक्रिया थी) और श्रेय लिया कि सम्भवत: वह अकेले ऐसे ब्लोगर है,जिन्हे कोरी पोस्ट पर भी टिप्पणी मिली.

फिर सारे के सारे ( लग्भग 30 लोग ही बचे थे ) bon-fire की तरफ शिफ्ट हो गये. ओपेन हाउस शुरू हुआ. किस तरह नेट्वर्किंग की जाये, कंटेंट शेयर ,ब्लोग्स की रेटिंग, नये ब्लोगरों को आगे लाने की बात, बार केम्प का आयोजन, ब्लोगरों मे गुट्बन्दी कैसे समाप्त की जाये( विशेष रूप से तमिल्नाडु में ऐसे चलन का जिक्र हुआ) आदि विषयों पर चर्चा हुई. एक ब्लोग से दूसरे पर लिंक देने की बात भी हुई. अजय जैन, अभिशेक कांत ,आशीष चोपरा आदि लगातार अपने विचार रखे जा रहे थे.जिस बात की पहले आशंका व्यक्त की जा रही थी कि प्रायोजक ही छाये रहेंगे, ऐसा कुछ तो नहीं दिखा. हां सभी को माइक्रोसोफ्ट के नाम वाली एक छोटा सा राइटिंग पैड तथा एक बाल पेन ज़रूर दिया गया. चना चब्रेना चाय आदि भी शायद प्रायोजकों की ओर से हो !!

हिन्दी जगत से हिन्द-युग्म के शैलेश, गाहे-बगाहे के विनीत, भडास के यशवंत, ब्लोग्वाणी के सिरिल, सराइ संस्था के राकेश, सृजन शिल्पी , चक्रधर , आदि ने विचार रखे. भडास के यशवंत जी ने तो कह भी दिया कि भैया हमारे इर्द गिर्द घूम कर अंग्रेज़ी बोलकर हमें मत डराओ,साथ में बैठकर बात करो. शैलेश ने अपनी सेवाएं प्रस्तुत की यदि उन्हें प्रायोजक मिल जाये. ( बाद मे शैलेश आश्चर्य कर रहे थे कि इन लोगों को प्रायोजक मिल गया, हमें क्यों नही मिलता, मैने कहा कि यही तो फर्क है-भारत और इंडिया में). रफ्तार डोट कोम वाले पीयुश जी थे ,अविनाश वाचस्पति जी भी मिले. ठंड बढने लगी थी, चाय के दो दौर आग के चारों ओर घूमते घूमते चल चुके थे. आयोजकों ने इशारे समझे और .....

इस तरह समापन हुआ इस आधी अधूरी पिक्निक का .


( photos from www.delhibloggers.in )
मीट की और फोटो देखने के लिये यहां जायें )

Tuesday, January 8, 2008

बचपन की 'बकनरी' उर्फ आओ बकनर -बकनर खेलें

सुनील गावस्कर ने अपनी पहली पुस्तक 'सन्नी डेज़' में ( मेरी यददाश्त सही है तो!!) Newzealand में खेले गये मैच का जिक्र करते हुए लिखा था कि जब एक खिलाडी क्लीन बोल्ड हो गया तो भारतीय टीम ने अपील की. इस पर अम्पायर बौख्लाकर बोला कि'ही इज़ क्लीन बोल्ड'he is claen bowled, इस पर गैन्दबाज़ ( भागवत चन्द्रशेखर) ने पूछा ' we know he is bowled but is he out वी नो ही इज़ क्लीन बोल्ड, बट इज़ ही आउट?"

क्रिकेट में ऐसे उदाहरण अक्सर मिल जाते थे और चठ्कारे ले ले कर इनका जिक्र होता था. एक ज़माना था जब पाकिस्तानी अम्पायर्स के बारे ऐसे अनेक किस्से होते थे. फिर neutral umpires का दौर आया. Technology और री-प्लेज़ का सहारा लिया जाने लगा. किंतु अभी भी समस्या से क्रिकेट जगत उबरा नही है. कुच समय पहले सचिन के बार बार विवादास्पद तरीके से आउट होने पर मैने एक पोस्ट लिखी थी ,जिसमे पूछा था कि कहीं यह साजिश तो नहीं(पोस्ट यहां देखें).

बचपन में जब हम( कानपुर के फूलबाग मैदान में) क्रिकेट खेलते थे तो हमेशा बल्लेवाज़ी करने वाली टीम का ही अम्पायर होता था. आम तौर पर हम बच्चे ( या कहें कि हर टीम) एक ऐसा बन्दा टीम में रखते थे कि जो डील डौल में अच्छा हो,दबंग हो, दूसरों को डरा धमका कर अपना फेसला मनवाने मे सक्षम हो.

कई ऐसे ही फ्रेंडली मेचों में तो विवाद से बचने के लिये पहले ही तय हो जाता था कि "एल बी डब्ल्यू-नाट आउट" .

ऐसी कई 'बकनर्री' के किस्से अभी भी याद है, जहां मैच बकनरी के चलते ही जीता गया.
एक तो कौलेज के दिनों का किस्सा है. शायद एलगिन मिल्ल्स के मैदान पर एक मैच खेल रहे थे. हमारे ही कौलेज का सेंचुरी मेन हमारी विपक्षी टीम में था. कुछ दिन पहले ही उसने दो सेंचुरी मार कर शहर में नाम पैदा किया था.में अपनी टीम में मुख्य गैन्दबाज़ था.हमारी टीम के एक अन्य खिलाडी का एक मित्र विपक्षी टीम में था. जब वह सेंचुरी मेन बैटिंग हेतु आया तो उसने अपने मित्र को, जो विपक्षी टीम ओर से अम्पायर था, आंख से इशारा कर दिया.
उसने क्या क्या बकनरी की, अब याद करता हूं तो हंसीं आती है. कोई ओवर 5 गेन्द का तो कोई 8-8 का. पर सबसे मजेदार था एल बी डब्ल्यू आउट होना उस सेंचुरी मेन का. गेन्द बस पैड पर लगी ही थी और वो भी विकेट से बाहर, बस सिर्फमैने अपील की और निर्णय हुआ आउट.
फिर तो वो हंगामा हुआ कि बस. मात्र सिर फुटोव्वल ही नहीं हुई बल्कि सब कुछ हो गया. उस जयचन्द/मीर ज़ाफर की जो दुर्गति हुई कि बस. अब भी वो मैच याद आता है . आज फिर वो बकनरी याद आ ही गयी.

Saturday, January 5, 2008

थ्री चीयर्स टू किरन बेदी

कुछ दिनों पहले भारत की पहली महिला आई पी एस होने का गौरव पाने वाली किरन बेदी ने स्वेच्छिक अवकाश (VRS ) ले लिया. बहुत पुरानी बात नहीं है, जब उन्हें दिल्ली का पुलिस कमिश्नर न बनाकर उनसे एक कनिष्ठ अधिकारी को यह पद दे दिया गया था. सुश्री किरन बेदी ने उस समय ही यह लगभग स्पष्ट कर दिया था कि अब इस घोर उपेक्षा के बाद उन्हें सेवा में अधिक दिलचस्पी नहीं रह गयी है. (केन्द्रीय गृह मंत्रालय के इस पक्ष्पाती रवैये पर मेरी पोस्ट यहां देखें)

VRS के बाद अब किरन ने एक और सराहनीय कदम उठाया है. उनके द्वारा पहले से ही चलायी जा रही स्वयंसेवी संस्था के तत्वावधान में उन्होने ‘मिशन सेफर इंडिया’ ( Mission Safer India ) नामक सेवा प्रारम्भ की है. यह सेवा उन सभी व्यक्तियों की मदद करेगी जिन्हे पुलिस से न्याय नही मिला है, अथवा जिनकी शिकायतों पर पुलिस ने गौर नही किया है. निश्चय ही यह एक सराहनीय प्रयास है जिससे हज़ारों लोग लाभांवित होंगे. इस संस्था द्वारा पहले से ही जेल सुधार, कैदियॉं के बेसहारा बच्चों के लिये मदद, महिला सशक्तीकरण जैसे नेक कार्य किये जाते रहे है ज़ाहिर है किरन बेदी जैसे कुशल प्रशासक के नेतृत्व में ये सभी गतिविधियां समाज सुधार में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर पायेंगी. हम सभी को ऐसे कार्य में इस प्रकार की संस्थाओं की भरपूर मदद करनी चाहिये. विस्तृत जानकारी के लिये देखें www.indiavisionfoundatio.org तथा www.saferindia.com
किरन बेदी का रेडिओ पर एक chat show भी आता है,जिसमें वह इस प्रकार की सलाह देती हैं.हालांकि उसमें अनेक कमियां भी है, परंतु फिर भी ऐसे कार्यक्रम कुछ लोगों को तो रास्ता दिखाते ही हैं,जिन्हें इसकी सख्त ज़रूरत है.

Thursday, January 3, 2008

मृत्यु ने झकझोर दिया था मुझे : 34 दिन बाद ब्लोग पर वापसी

सभी के साथ अंतत: यह होना है. सभी को कभी ना कभी इस अनुभव से गुजरना ही है. हर घर मे किसी न किसी की मौत हुई है. यही शाश्वत सत्य है.बाकी सब माया है.
अनेक दिनों तक ये विचार मन में आते रहे. रोज़ एक तरह की दहशत सी बनी रही. अनेक दिनों तक मृत्यु के भय से मुक्त नहीं कर पाया स्वयं को.
न केवल भय, बल्कि मन में संसार के नश्वर होने की वास्तविकता इस कदर मन पर छायी रही कि अनेक दिनों से कुछ काम काज भी अनमने ढंग से ही करता रहा. बल्कि यूं कहना चाहिये कि ..बस होता ही रहा .

25/26 नवम्बर2007 की रात को तसलीमा नसरीन के विषय पर पोस्ट लिखी थी. उसी दिन खबर मिली कि हमारी ही सोसाइटी में 7वें तल पर रहने वाले डा.अरविन्द गुप्ता नही रहे. लगभग 40 वर्ष के रहे होंगे.दो छोटे छोटे बच्चे हैं उनके. सुबह शाम मुलाक़ात हो ही जाती थी.पिछली शाम ही में गेट से अपनी कार में निकल रहा था, उनकी कार प्रवेश कर रही थी. कोई बीमारी नही. स्वयम रेडियोलोजिस्ट थे.पत्नी व घर वालों का बुरा हाल देखा नहीं जा रहा था. लगा कि चारों तरफ बस यही स्वर गूंज रहा है:जीवन नश्वर है -सब कुछ माया है. कौन कब चला जाये,कोई भरोसा नही.मन अवसाद से भर गया.

तीन दिन पहले ही एक और रिश्तेदार के एक-डेढ वर्षीय पुत्र के बारे में खबर आयी थी. पति-पत्नी बंगलौर में रहते थे.जरा सी लापरवाही..और उनके सपनों का राजकुमार नही रहा-मामूली डायरिया से शुरुआत हुई.और बस सारे सपने चूर..अभी कुछ दिनों पहले ही नये घर में प्रवेश किया था,बच्चे का कमरा बडे शौक से सजाया था.सब बच्चे को अपने दादा दादी के घर दिल्ली अंतिम क्रिया के लिये लाया गया तो वही भयानक चीख पुकार..,डरावनी. दिल को झकझोरने वाली.

तीन दिन बाद ..29 नवम्बर 2007.मैं (AIMA की )एक गोष्ठी मे भाग ले रहा था. फोन को silent mode पर रखा था.चूंकि सम्वाद जारी था अत: calls को नहीं ले रहा था. सोचा था सारी missed calls का लंच के समय जवाब दूंगा. एक न बन्द होनी वाली call जब ली तो भाव शून्य हो के रह गया. पता लगा कि कानपुर मे रहने वाले मेरे बडे भाई साहब नही रहे. मैं चुप. कोई प्रतिक्रिया नही हो पाई. फिर सभी वक्ताओं व सहभागियों से माफी मांगते हुए मात्र यह कह कर निकला कि tragic news है, माफ करें मुझे जाना पडेगा.

अगले कुछ दिन कानपुर में. अंतिम यात्रा -श्मशान घाट, अंतिम संस्कार ,वही सब कुछ.
इधर अंदर ही अन्दर टूट सा गया था. मन को ढांढस बन्धाने की स्वयम ही कोशिश करता परंतु मन की निराशा थी कि दूर ही नही हो पा रही थी. शायद यह निराशा नही एक भय अधिक था-वह भय जो आपको झक्झोर देता है.

वापस दिल्ली आया तो किसी काम में मन न लगना जारी रहा. तेरहवीं पर फिर कानपुर गया,लौट्कर धीरे धीरे सारी शक्ति जोडकर फिर सामान्य होने की भरपूर कोशिश. फिर दिल्ली वापस. किंतु हालत वही. Bank Managers के लिये आयोजित trainig programme में पढाना था. किसी तरह वह भी पूरा किया. मन में नैराश्य़ इतना अधिक बढ गया था कि बहुत अधिक चिड्चिडा सा हो गया था. मेरा 18 वर्षीय पुत्र सब कुछ भांप रहा था. अनेक दिनों के उसके प्रयास के बाद एक प्रेरणा दायक सीडी देखी ( इस महत्वपूर्ण विषय पर विस्तार से फिर कभी),मन हल्का हुआ.भय क्रमश्: कम हुआ. निराशा भी दूर हुई. ( पत्नी रोज़ कहती रहती थी कि ब्लोग पर कुछ लिखो, मन लगेगा, पर सम्भव ही नही हो पा रहा था).

इस बार सोसाइटी वालों ने परिस्थिति को देख कर नये वर्ष का उत्सव भी नहीं मनाया.

इस बीच ब्लोग्वाणी व चिट्ठाजगत पर झांक कर कभी कभी देख लेता था कि क्या चल रहा है, परंतु स्वयं को टिप्पणी करने लायक भी नही बना पा रहा था.

आज महर्षि के ब्लोग पर बनारस पर पोस्ट पढी तो ब्लोग पर टिप्पणी के साथ 34 दिन बाद वापसी हुई.
25/26 नवम्बर 2007 के बाद पहली पोस्ट है. शायद वही पुराना क्रम् फिर चालू हो जाये.

सभी को नव वर्ष की शुभकामनायें.